धूप ही धूप है आँचल है न साया कोई ज़िंदगी है कि दहकता हुआ सहरा कोई एक इक कर के सभी वक़्त के साथी बिछड़े रह गया मंज़िल-ए-उम्मीद पे तन्हा कोई मोम की तरह मिरा जिस्म पिघलते हुए देख इस घड़ी तू है मिरे पास कि शो'ला कोई लोग पथराव करें ख़ाक उड़ाएँ कि हँसें बे-नियाज़ाना गुज़र जाएगा हम सा कोई सब के सब कोहना रिवायात के रहरव निकले वक़्त की छाँव में इक पल भी न ठहरा कोई है ये अंदाज़-ए-सितम गर्म हवाओं का 'ज़िया' पेड़ के जिस्म पे बाक़ी नहीं पत्ता कोई