हज़ार रूप फ़रोज़ाँ हैं रौशनी की तरह वो अपने रंग में तन्हा है चाँदनी की तरह यही नहीं कि ज़माने से रस्म-ओ-राह न की हम अपने घर में भी रहते हैं अजनबी की तरह जुलूस वाले मकानों को फूँक भी देते यही बहुत है कि गुज़रे हैं आदमी की तरह जिधर निगाह उठाओ दिखाई देता है तिरा वजूद मनाज़िर में दिलकशी की तरह वो तू नहीं था कि मैं ही बदल गया ऐ दोस्त तिरे क़रीब से गुज़रा हूँ अजनबी की तरह भटक रहा हूँ समुंदर की जुस्तुजू में 'ज़िया' मिरा वजूद है बहती हुई नदी की तरह