हरम-ओ-दैर-ओ-कलीसा से निकल आया हूँ तब कहीं जा के मैं इंसान से मिल पाया हूँ काले पत्थर पे भटकते हुए क़दमों के निशाँ मुझ से मिलिए मैं नई नस्ल का सरमाया हूँ मैं भी एहसास की भट्टी में पड़ा हूँ ये बता कैसे अंगारे तिरी पलकों पे देख आया हूँ फ़ासला कितना भी हो इस घनी आबादी में ये हक़ीक़त है कि मैं आप का हम-साया हूँ मुझ को ज़ाएअ' न करो आँखों में रहने दो मुझे हूँ तो क़तरा ही मगर आप गराँ-माया हूँ और कुछ देर इसी शाख़ पे रहने दीजे अभी एहसास है ज़िंदा अभी मुरझाया हूँ मुझ को अल्फ़ाज़ का जादू नहीं आता 'नक़वी' बात जो दिल में रही है वो न कह पाया हूँ