दीद के इम्कान हुस्न-ए-इर्तिक़ा पाने लगे वो नज़र की हद से बाहर भी नज़र आने लगे देख कर ज़र्रों को तारे रक़्स फ़रमाने लगे आसमाँ वाले ज़मीं वालों का गुन गाने लगे है इसी का नाम दिल का सोज़ मेराज-ए-हयात आदमी को जब ख़ुशी में ग़म नज़र आने लगे सोच कर अंजाम-ए-गुल ग़ुंचों की आँखें खुल गईं देख कर शबनम के आईनों को थर्राने लगे फ़ितरतन अब जाग उठी है मंज़िल-ए-ज़ेहन-ओ-शुऊ'र कारवाँ भटके हुए ख़ुद राह पर आने लगे गुल्सिताँ ने पा लिया राज़-ए-जमाल-ए-जावेदाँ लाख आए अब ख़िज़ाँ क्यों फूल मुरझाने लगे किस क़दर ख़तरे में हैं होश-ओ-ख़िरद की इस्मतें अब तो दीवाने भी फ़र्ज़ानों को समझाने लगे मैं तो कुछ समझा नहीं ये इस्तिआ'रा ऐ 'शिफ़ा' मेरे आते ही वो उठ कर बज़्म से जाने लगे