हमारे ज़ौक़ पर ये वक़्त अगर आया तो क्या होगा

हमारे ज़ौक़ पर ये वक़्त अगर आया तो क्या होगा
नज़र में जज़्ब हो कर वो नज़र आया तो क्या होगा

ग़म-ए-हस्ती का तारा औज पर आया तो क्या होगा
हँसी में भी कोई आँसू उभर आया तो क्या होगा

उधर तारे इधर कलियाँ हैं मसरूफ़-ए-गिराँ-ख़्वाबी
अगर ऐसे में पैग़ाम-ए-सहर आया तो क्या होगा

ये ख़ाली जाम रक्खेंगे भरम कब तक तिरा साक़ी
जो मयख़ाने में कोई दीदा-वर आया तो क्या होगा

तुम्हारा ग़म ग़म-ए-आलम की सुर्ख़ी बन तो सकता है
कोई धब्बा अगर तारीख़ पर आया तो क्या होगा

चले तो हैं तलाश-ए-आस्ताँ में ऐ 'शिफ़ा' हम भी
मगर अपना ही पहले संग-ए-दर आया तो क्या होगा


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