दीदार तेरे हुस्न का बस आँख भर करूँ और फिर इसी सुरूर में पहरों बसर करूँ मिसरों में ढल के आप के दिल में उतर सकें इतना मैं हर ख़याल को बारीक-तर करूँ ऐ ज़िंदगी बता मुझे तू ने दिया है क्या तेरा यक़ीं करूँ भी तो किस बात पर करूँ ये भी तो इक तरह से मोहब्बत की हार है ख़ुद को तुम्हारे हिज्र में बर्बाद गर करूँ मेरी मसाफ़तों की कोई इंतिहा तो हो इन आबलों के साथ मैं कब तक सफ़र करूँ हर शख़्स की ज़बान पे 'काफ़िर' का नाम हो इतना मैं अपने आप को अब नामवर करूँ