दीदार वक़्त-ए-नज़अ' मयस्सर हुआ तो क्या अब माइल-ए-करम वो सितमगर हुआ तो क्या जी उठते कुश्तगान-ए-मोहब्बत तो बात थी बरपा ख़िराम-ए-नाज़ से महशर हुआ तो क्या रोज़-ए-अज़ल रहा तो सही इम्तियाज़ कुछ ग़म मेरे वास्ते जो मुक़द्दर हुआ तो क्या सरमस्तियों में कैफ़ नहीं है तो कुछ नहीं लबरेज़ अगर शराब से साग़र हुआ तो क्या मेआ'र ही बुलंद है ज़ौक़-ए-निगाह का आलम तमाम हुस्न का मंज़र हुआ तो क्या मौजूद वहशतें भी हैं चर्ख़-ए-कुहन भी है आराम गर्दिशों से जो दम भर हुआ तो क्या उन की जफ़ा से ख़ाक में आशिक़ तो मिल चुके अब क़िस्सा इक जहाँ की ज़बाँ पर हुआ तो क्या इश्क़-ए-जफ़ा से यार को फ़ुर्सत न चाहिए आलम क़तील-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर हुआ तो क्या वहशी कहीं हुई हैं भला तल्ख़ियाँ भी कम दिल अपना लाख रंज का ख़ूगर हुआ तो क्या