दिए मुंडेरों के रौशन क़तार होने लगे लवें तराशने वाले फ़रार होने लगे दबीज़ पर्दों पे मानूस लहरें उठने लगी हवा के हाथ दरीचों से पार होने लगे अदू भी भरने लगे दम तिरी रिफ़ाक़त का अब ऐसे-वैसे तमाशे भी यार होने लगे अब आने वाली किसी रुत का इंतिज़ार हो क्या जड़ों से अपनी शजर दाग़दार होने लगे फ़लक के पुर्ज़े अब उड़ने में कोई देर नहीं पहाड़ सरके ज़मीनों में ग़ार होने लगे खुला महाज़ तो होगी हमारी पस्पाई हम अपने ख़ौफ़-ए-दरूं का शिकार होने लगे सफ़र है सख़्त बहुत सख़्त अगले मोड़ के बाद चमक रहे थे जो मंज़र ग़ुबार होने लगे न कोई मौज-ए-तमाशा न अक्स-ए-हैरत 'रम्ज़' हमारे आईने बे-ए'तिबार होने लगे