दिखाते हैं अदा कुछ भी तो आफ़त आ ही जाती है सँभल कर लाख चलते हैं क़यामत आ ही जाती है मोहब्बत में हैं सब्र-ओ-शुक्र के हर-चंद हम क़ाइल मगर कुछ कुछ कभी लब पर शिकायत आ ही जाती है जो सच पूछो तो हैं आशिक़ भी पैरव नाज़नीनों के बदन में ना-तवानी से नज़ाकत आ ही जाती है मजाज़ इक पर्दा-ए-इदराक है तो चश्म-ए-बीना को किसी सूरत नज़र शक्ल-ए-हक़ीक़त आ ही जाती है नहीं जज़्ब-ए-दिल-ए-आशिक़ से है मा'शूक़ को चारा अगर बेदर्द भी हो तो मोहब्बत आ ही जाती है बुतान-ए-सीम-तन के वस्ल से हम फ़ैज़ पाते हैं वो आते हैं तो अपने घर में दौलत आ ही जाती है तिरे अशआ'र-ए-रंगीं से भला फ़रहत न हो 'अहक़र' कि इन फूलों से ख़ुश्बू-ए-फ़साहत आ ही जाती है