दिल अगर इश्क़ का शिकार नहीं जल्वा-गाह-ए-जमाल-ए-यार नहीं धोके खाए हैं इस क़दर दिल ने अब नज़र पर भी ए'तिबार नहीं दर्द लेता है करवटें पैहम किसी पहलू भी अब क़रार नहीं ये सुलगती है अंदर अंदर ही आतिश-ए-इश्क़ शो'ला-बार नहीं बे-ख़ुदी शौक़ की मआ'ज़-अल्लाह सामने वो और ए'तिबार नहीं बस बस ऐ वहशत-ए-दिली बस बस जेब में बाक़ी एक तार नहीं हम से नाकामों की जवानी क्या है ख़िज़ाँ ही ख़िज़ाँ बहार नहीं मोहतसिब क्यों छुपे हैं बिन्त-ए-इनब तेरी निय्यत का ए'तिबार नहीं है इशारे कुछ और आँखों के मुँह से कह दें वो लाख बार नहीं इक हवा है चली चली न चली ज़िंदगी का कुछ ए'तिबार नहीं उन की बातों में आ गए 'नव्वाब' जिन की बातों का ए'तिबार नहीं