दिल अपना आब-जू-ए-हक़ाएक़ के पास है महरूम क्यों अज़ल से मिरे फ़न की प्यास है हर लम्हा अपना रंग बदलता है ये जहाँ अब वक़्त को भी देखिए मौक़ा-शनास है मेरे यक़ीं के रास्ते तारीक हैं बहुत इक अज़्म का चराग़ मगर अपने पास है कहने लगे हो मुझ को ही नंग-ए-वजूद क्यों देखो तो सारा शहर ही अब बे-लिबास है जो शीशा-ए-यक़ीं को भी यक-लख़्त तोड़ दे यारों के हाथ में वही संग-ए-क़यास है शायद अनोखा हादिसा गुज़रा है रात को सूरज का चेहरा सुब्ह से कितना उदास है