ग़म-ज़दा कितना हमारे ज़ेहन का साया रहा संग-ज़ार-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न से ख़ुद को टकराता रहा मैं तफ़क्कुर के अंधेरे ग़ार में बैठा रहा पास मेरे वाहिमों के शेर का डेरा रहा हिर्स के ख़ुर्शीद की ऐसी पज़ीराई हुई अज़्मतों के आसमाँ का रंग फीका सा रहा लफ़्ज़ की बारिश में सारी रौशनाई धुल गई वक़्त का क़िर्तास पहले की तरह सादा रहा हट के महवर से ख़ला में कितने तारे गुम हुए गर्दिशों में आगही का एक सय्यारा रहा ज़िंदगी की ज़हर-नाकी ख़त्म हो जाती मगर ख़्वाहिशों के नाग से मैं ख़ुद को डसवाता रहा हम ने 'जामी' घर के अंदर आफ़ियत महसूस की ख़ौफ़ का साया पस-ए-दीवार लहराता रहा