दिल-बस्तगी के होते हैं सामाँ कभी कभी कश्ती की सम्त बढ़ते हैं तूफ़ाँ कभी कभी महसूस ये हुआ कि जले हम तमाम शब देखा है यूँ भी जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी ये तो तलब नहीं कि ब-क़द्र-ए-तलब मिले लेकिन ब-क़द्र-ए--वुसअ'त-ए-दामाँ कभी कभी होते हैं इत्तिफ़ाक़ से दीवाने एक जा आती है रास गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी फेंकी है मैं ने अपने ही हालात पर कमंद ख़ुद से हुआ हूँ दस्त-ओ-गरेबाँ कभी कभी या रोज़ एक ताज़ा सितम आज़माईए या फिर हमारी शान के शायाँ कभी कभी