दिल का मक़्सूम था महव-ए-ग़म-ए-जानाँ होना उसी आईने से सीखे कोई हैराँ होना अपनी ही अंजुमन-ए-शौक़ में हो नग़्मा-सरा तंग है ग़ैर की महफ़िल में ग़ज़ल-ख़्वाँ होना ज़िंदगी क्या है तिरी याद तिरा ज़िक्र-ए-जमील बंदगी क्या है तिरे नाम पे क़ुर्बां होना दिल ये कहता है पशेमान-ए-मोहब्बत हो जा दर्द कहता है न मिन्नत-कश-ए-दरमाँ होना उन से इतना न हुआ पुर्सिश-ए-ग़म ही करते हम से देखा न गया जिन का परेशाँ होना मुझ को ख़ुश आ न सका ग़ैरत-ए-दीनी से फ़रार उन को रास आ गया ग़ारत-गर-ए-ईमाँ होना आशिक़ी ज़ब्त है और ज़ब्त है रानाई-ए-ज़ीस्त इश्क़ की शान नहीं चाक-गरेबाँ होना मुझ को उन शोख़ निगाहों ने बनाया काफ़िर जिन को मंज़ूर न था मेरा मुसलमाँ होना हाए उस अश्क-ए-जिगर-सोज़ की क़िस्मत 'फ़ारूक़' जिस की क़िस्मत न हो पलकों पे फ़रोज़ाँ होना