दिल के ज़ख़्मों की चुभन दीदा-ए-तर से पूछो मेरे अश्कों का है क्या मोल गुहर से पूछो घर जला बैठे चराग़ों की हवस में आख़िर घर की क़ीमत तो किसी ख़ाक-बसर से पूछो ये तो मा'लूम है मैं सम्त-ए-सफ़र खो बैठी तुम इसी बात को अंदाज़-ए-दिगर से पूछो रेत उड़ती है सुझाई नहीं देता कुछ भी कट सकेगी कभी ये रात सहर से पूछो यूँ तो मजनूँ भी हुआ कोहकन ओ मंसूर हुए घायल अब कौन हुआ तीर-ए-नज़र से पूछो लोग कहते हैं मुझे संग-ए-सर-ए-रह 'बुशरा' क़द्र-ओ-क़ीमत मिरी कुछ अहल-ए-हुनर से पूछो