दिल के ज़ख़्मों को आश्कार न कर दामन-ए-इश्क़ दाग़-दार न कर ग़ैर के दर पे सर झुके या-रब मुझ को इतना ज़लील-ओ-ख़्वार न कर मैं उख़ुव्वत पसंद हूँ लेकिन बुज़दिलों में मिरा शुमार न कर उन की फ़ितरत बदल नहीं सकती शर-पसंदों का ए'तिबार न कर सिर्फ़ लफ़्ज़ों के तीर काफ़ी हैं ख़ंजरों को दिलों के पार न कर तू अगर शेर है तो सामने आ छुप के ख़रगोश का शिकार न कर आख़िरत की भी फ़िक्र कर 'नाज़िम' टूट कर ज़िंदगी से प्यार न कर