दिल की ख़लिश से चैन न आए तो क्या करूँ बनती नहीं है बात बनाए तो क्या करूँ इश्क़-ए-बुताँ को मैं ने तो समझा था दिल-लगी ये दिल-लगी भी दिल को जलाए तो क्या करूँ मैं जाम से पियूँ तो गुनहगार-ए-मय-कशी नज़रों से अपनी कोई पिलाए तो क्या करूँ मैं ने हज़ार बार भुलाया तुम्हें मगर दिल से तुम्हारी याद न जाए तो क्या करूँ तुझ सा दिखाऊँ और भी कोई तुझे मगर आइना भी न सामने आए तो क्या करूँ माना कि बार-ए-ज़ीस्त कुछ ऐसा गिराँ नहीं ये भी मगर उठाया न जाए तो क्या करूँ हर इक ख़ुशी भी होती है मुझ को पयाम-ए-ग़म हँसते ही हँसते आँख भर आए तो क्या करूँ मैं उन से अपना क़िस्सा-ए-ग़म कह तो दूँ मगर कोई नज़र ही अब न मिलाए तो क्या करूँ जिस के लिए जहान से बेगाना हो गया वो भी न 'सेहर' अपना बताए तो क्या करूँ