दिल को आज़ार लगाना ही नहीं होता है अब तिरे ध्यान में जाना ही नहीं होता है सफ़-ब-सफ़ देर से पलकों पे रुके हैं आँसू क़ाफ़िला आगे रवाना ही नहीं होता है माँग लेता है दिल-ओ-जान वो हँसते हँसते और मिरे पास बहाना ही नहीं होता है मशवरा करने को जाते थे कभी मजनूँ से दश्त में अब कोई दाना ही नहीं होता है इस क़दर गर्द है इस आब-ओ-हवा में हर-सू नख़्ल-ए-एहसास तवाना ही नहीं होता है हाथ आ जाता है उस शख़्स के दरिया 'तारिक़' जिस ने सहरा कभी छाना ही नहीं होता है