गुज़र रहा था मैं जब पा-शिकस्ता ताएफ़ से जरी भी सारे दिखाई दिए थे ख़ाइफ़ से ये शेर रंज-ओ-अलम का अजीब नुस्ख़ा हैं बलाएँ टालते हैं हम इन्ही वज़ाइफ़ से बहुत क़रीने से मलफ़ूफ़ हैं मिज़ा में अश्क बहलती रहती हैं आँखें तिरे तहाइफ़ से हमारे दर्द की तफ़्सील में गया ही नहीं वो आश्ना हुआ दो-चार ही कवाइफ़ से सो हम को नग़्मा-ए-दुनिया भी क्या भला लगता कि दिल लगा नहीं अपना कुछ उस तवाइफ़ से वो अजनबी था मगर जान ही गया 'तारिक़' मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरे लताइफ़ से