दिल ले चला है बाँध के दिलबर के रू-ब-रू जाता है इक असीर सितमगर के रू-ब-रू उस बुत में इक ख़ुदाई का जल्वा है वर्ना शैख़ सज्दे किए से फ़ाएदा पत्थर के रू-ब-रू आँसू बहा रहा हूँ ख़त-ए-यार पढ़ के मैं यूँ दाना डालता हूँ कबूतर के रू-ब-रू हासिल हुई भी अक़्ल-ए-फ़लातूँ अगर तो क्या चलती नहीं किसी की मुक़द्दर के रू-ब-रू ऐ 'दाग़' होगा हम से किसी का जवाब क्या मिक़दार-ए-चश्म क्या है समुंदर के रू-ब-रू