दिल महव-ए-इंतिज़ार कभी है कभी नहीं सोचों का इक हिसार कभी है कभी नहीं ख़ुशियों की जुस्तुजू में हुआ ऐसा बारहा सर पर ग़मों का बार कभी है कभी नहीं नश्शा तिरे ख़ुलूस का इक बहर-ए-बे-कराँ हल्का सा वो ख़ुमार कभी है कभी नहीं जिस पे गुलों के हुस्न का दार-ओ-मदार है गुलशन में वो बहार कभी है कभी नहीं ग़ारत हुए हैं जिस के सबब अहल-ए-गुल्सिताँ जलवों पे वो निखार कभी है कभी नहीं राह-ए-वफ़ा में हाल-ए-दिल-ए-ज़ार की न पूछ ख़ुद पर भी इख़्तियार कभी है कभी नहीं इक कश्मकश में आज-कल उलझी है ज़िंदगी वो रंग-ए-ए'तिबार कभी है कभी नहीं आते हैं ज़िंदगी में कई ऐसे दौर भी मस्लक में इंकिसार कभी है कभी नहीं फ़िहरिस्त-ए-जाँ-निसाराँ में ख़ुश-बख़्त और हैं 'साइर' का तो शुमार कभी है कभी नहीं