है उस का हक़ ये हो परमात्मा से जिस की लाग किसी भी शख़्स की मीरास तो नहीं बैराग ख़मोश बैठो न तुम रख के हाथ पर यूँ हाथ बनाओ जेहद-ए-मुसलसल से आप अपने भाग किया फ़रेब मोहब्बत से फ़र्श वालों ने बरसती है जो फ़लक से मुख़ासमत की आग निशात-ओ-ग़म का अजब इम्तिज़ाज है इन में ये मेरे साँस ही मेरे वजूद का हैं राग ये तेरे अज़्म को मंज़िल से क़ब्ल डस लेंगे मसाफ़तों में अगर हम-सफ़र हैं ख़ौफ़ के राग तमाम शहर के अफ़राद सो गए 'साइर' मिरे ज़मीर की आवाज़ है मुसलसल जाग