दिल में क्यूँ-कर समावें दाग़ बहुत एक क़िंदील और चराग़ बहुत क़ैद-ए-हस्ती ही तक ख़राबी है मर गए बस जहाँ फ़राग़ बहुत दिल-ए-पुर-दाग़ की सी सैर कहाँ ये मुसल्लम जहाँ में बाग़ बहुत क्या बहार आई बाग़बाँ गुल की इन दिनों है तुझे दिमाग़ बहुत दिल-ए-गुम-गश्ता का निशान कहाँ ले चुके आह हम सुराग़ बहुत रश्क-ए-गुल क्या मिला कोई 'फ़िद्वी' तुझ को देखूँ हूँ बाग़-बाग़ बहुत