दिल में रुमूज़-ए-इश्क़ का दफ़्तर लिए हुए कूज़े में फिर रहा हूँ समुंदर लिए हुए ऐसे ही बल है मेरा मुक़द्दर लिए हुए जैसे कि उन की ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर लिए हुए क्या ख़ाक आइने में नज़र आए रू-ए-दोस्त दिल है ख़ुदी की गर्द-ए-मुकद्दर लिए हुए सदक़े तिरे क़ज़ा कि सुबुक-दोश कर दिया बार-ए-गुनह था भारी मैं सर पर लिए हुए हिर्स-ओ-हवा के फंदों में हर दम फँसे हुए कितने वबाल-ए-जाँ हैं तवंगर लिए हुए ख़ैल-ओ-हशम को देख के दोज़ख़ भी काँप उठा पहूँचा जो मैं गुनाहों का लश्कर लिए हुए खटका न जान का है न कुछ फ़िक्र माल की सारी तसल्लियाँ हैं गदागर लिए हुए आरास्ता है दुर्र-ए-मआ'नी से सर-बसर 'जौहर' ग़ज़ल ये ताबिश-ए-जौहर लिए हुए