दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं आग हम संग की मानिंद निहाँ रखते हैं ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात लोग अक्सर मिरे जीने का गुमाँ रखते हैं भा गई कौन सी वो बात बुतों की वर्ना न कमर रखते हैं काफ़िर न दहाँ रखते हैं मिस्ल-ए-परवाना नहीं कुछ ज़र-ओ-माल अपने पास हम फ़क़त तुम पे फ़िदा करने को जाँ रखते हैं महफ़िल-ए-यार में कुछ बात न निकली मुँह से कहने को शम्अ की मानिंद ज़बाँ रखते हैं हो गया ज़र्द पड़ी जिस की हसीनों पे नज़र ये अजब गुल हैं कि तासीर-ए-ख़िज़ाँ रखते हैं एवज़-ए-मुल्क-ए-जहाँ मुल्क-ए-सुख़न है 'नासिख़' गो नहीं हुक्म-ए-रवाँ तब्अ-ए-रवाँ रखते हैं