दिल रहा है ख़राब-हाल बहुत यूँ भी गुज़रे हैं माह-ओ-साल बहुत ऐ ग़म-ए-इश्क़ तेरी उम्र दराज़ तू ने रक्खा मिरा ख़याल बहुत मुँह हम अपना सा रह गए ले कर दिल में था शौक़-ए-अर्ज़-ए-हाल बहुत उन से तजदीद-ए-रस्म-ओ-राह की बात है तो मुमकिन मगर मुहाल बहुत मैं ने अक्सर सुनी हैं लोगों से दास्तानें भी हस्ब-ए-हाल बहुत हाँ तुम्हारी मगर मिसाल नहीं यूँ तो बे-शक हैं बे-मिसाल बहुत तुम ही 'अफ़्सूँ' नहीं कराची में और भी हैं ख़राब-हाल बहुत