दिल से दिल ही न मिले जब तो बने बात ही क्या इक नया रंग न उभरे तो मुलाक़ात ही क्या ज़िंदगी ज़िंदा हो रख़्शंदा-ओ-पाइंदा भी हो चंद साँसों से मिली जान की सौग़ात ही क्या अपने अस्लाफ़ के एहसान भुला कर उन को बा'द-अज़-मर्ग दिए भी तो ख़िताबात ही क्या कम से कम दीजिए इक बार तो मौक़ा हम को फूल सहरा में न खिल जाएँ तो फिर बात ही क्या ख़ून-ए-दिल दे के किया उन के चमन को शादाब फिर भी कहते हैं हमें आप की औक़ात ही क्या हिर्स की आग में दुल्हन को जला देते हैं ऐसे जल्लादों की औक़ात ही क्या ज़ात ही क्या उफ़ ये बरसात कि बह जाएँ ग़रीबों के मकाँ ख़ून रुलवाए जो बरसात वो बरसात ही क्या क़ल्ब पर नक़्श न बन कर जो उभर आएँ 'हबीब' ऐसे अशआ'र ही क्या ऐसे ख़यालात ही क्या