दिल से जोश-ए-शबाब जाता है ज़ीस्त से इज़्तिराब जाता है रुख़ पे डाले नक़ाब जाता है अब्र में माहताब जाता है जाने को तो शबाब जाता है कर के मिट्टी ख़राब जाता है अपना अहद-ए-शबाब जाता है सर से सारा अज़ाब जाता है रुख़-ए-रौशन पे आई हैं ज़ुल्फ़ें सौर में आफ़्ताब जाता है देखें गिरती हैं बिजलियाँ किस पर रुख़ से सरका नक़ाब जाता है फ़िक्र-ए-आलम से हो के अब आज़ाद दिल से ख़ाना-ख़राब जाता है इस तरह जा रहा हूँ मैं 'असग़र' जैसे सरमस्त-ए-ख़्वाब जाता है