कोई तो आ के मिरे दर को खटखटाए भी अँधेरी रात में जुगनू सा जगमगाए भी गुमाँ के पिंजरे में कब से कोई परिंदा है कभी तो खोले परों को कि फड़फड़ाए भी अना की धूप में गुम-सुम खड़ा है कौन यहाँ मैं छाँव हूँ मुझे देखे वो मुस्कुराए भी वो मेरी साँस का जैसे अटूट हिस्सा है अगर है उस को भी एहसास तो जताए भी धुआँ धुआँ सा जो मंज़र दिखाई देता है कभी तो दिल में वो चेहरा सा झिलमिलाए भी मैं आइना तो नहीं हूँ क़ुबूल है लेकिन कमी है क्या मिरे अंदर कोई बताए भी तमाम उम्र ही हँसता रहा हूँ मैं 'आदिल' कभी तो नम हों ये आँखें कोई रुलाए भी