दिल से मिरे तन्हाई की शिद्दत नहीं जाती अब तू भी चला आए तो वहशत नहीं जाती इस दौर की ता'लीम का मेआ'र अजब है ता'लीम तो आती है जिहालत नहीं जाती क्या सोच के उम्मीद-ए-वफ़ा बाँधी थी तुम से इक उम्र हुई दिल की नदामत नहीं जाती मुफ़्लिस भी तो ख़ुद्दार हुआ करते हैं लोगो ग़ुर्बत में भी इंसाँ की शराफ़त नहीं जाती ले जाती हैं अब तक भी मिरी नींद चुरा कर अब तक भी उन आँखों की शरारत नहीं जाती दे देता है अल्लाह मुझे हस्ब-ए-ज़रूरत अब ले के किसी दर पे ज़रूरत नहीं जाती सौ बार तिरी जान पे बन आई है 'फ़रहत' फिर भी तिरी हक़-गोई की आदत नहीं जाती