दिलों में आदमिय्यत सो रही है ज़मीं क्या बोझ अपना ढो रही है ज़रा ऐ इश्क़ तू रहना सँभल कर शरारत हुस्न की कुछ हो रही है हमारी आरज़ूओं के महल में उदासी बाल खोले सो रही है जहाँ थे ग़लग़ले कल महव-ए-रक़्साँ वहाँ पे ख़ामुशी अब रो रही है 'सना' तेरे गुबार-ए-आइना को उसी की याद में तो धो रही है