यूँ तो कहने को एक क़तरा हूँ सच तो ये है कि जुज़्व-ए-दरया हूँ अल्लह अल्लह ये मेरी तिश्ना-लबी मैं समुंदर भी पी के प्यासा हूँ हुस्न ही हुस्न है जिधर देखो सरहद-ए-इश्क़ लांघ आया हूँ ग़म अगर है तो बस मुझे ये है रह के अपनों में भी पराया हूँ हम-नशीं मुझ से हाल-ए-ज़ार न पूछ बन के नंग-ए-वजूद आया हूँ जिस को अपना वतन न रास आया मैं वो साबरमती का बेटा हूँ ज़र्रे ज़र्रे में तेरा जल्वा है क़तरा क़तरा मैं तुझ को पाया हूँ तेरी ही आरज़ू में जीता हूँ तेरी ही जुस्तुजू में मरता हूँ ज़िंदगी अपनी धूप छाँव 'समीअ'' गाह हँसता हूँ गाह रोता हूँ