दीवारों पे क्या लिक्खा है By Ghazal << हर शय में मुझे कुल का तमा... आप अपनी नक़ाब है प्यारे >> दीवारों पे क्या लिक्खा है शहर का शहर ही सोच रहा है ग़म की अपनी ही शक्लें हैं दर्द का अपना ही चेहरा है इश्क़ कहानी बस इतनी है क़ैस की आँखों में सहरा है कूज़ा-गर ने मिट्टी गूंधी चाक पे कोई और धरा है 'अम्बर' तेरे ख़्वाब अधूरे ताबीरों का बस धोका है Share on: