दो घड़ी बैठ के अश्कों को भी बहने न दिया दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया रू-ब-रू उन के ज़बाँ-बंदी का आलम ही सही शौक़-ए-दीदार ने इक लफ़्ज़ भी कहने न दिया हर नफ़स उन के तबस्सुम ने मसर्रत बख़्शी साया-ए-ग़म से रुख़-ए-ज़ीस्त को गहने न दिया जलते देखे हैं मकानात लहू बहते हुए फिर भी हालात ने कहना था जो कहने न दिया था अज़ल से ही 'हिलाल' उन में वफ़ा का एहसास क़ुर्बत-ए-ग़ैर का सदमा कभी सहने न दिया