दो-चार गाम पास-ए-रिफ़ाक़त न कर सके हम फिर भी उन से कोई शिकायत न कर सके क्या ऐसे हम-सफ़र पे भरोसा करे कोई जो दिल को भी शरीक-ए-मसाफ़त न कर सके इंसाँ का एहतिराम था इतना हमें अज़ीज़ हम अपने दुश्मनों से भी नफ़रत न कर सके हम लोग तो कुछ ऐसे क़दामत-परस्त हैं पैदा किसी भी काम में जिद्दत न कर सके चुनते हो ऐसा क़ाफ़िला सालार किस लिए जो अहल-ए-कारवाँ की हिफ़ाज़त न कर सके हम ऐसे हुक्मरान थे बे-इख़्तियार से इस दिल की सल्तनत पे हुकूमत न कर सके नाराज़ हम से हैं वो हमारे सुकूत पर लब खोलने की ख़ुद भी जो हिम्मत न कर सके 'शाहिद' दयार-ए-दिल में अंधेरा है चार सू रौशन कोई चराग़-ए-मोहब्बत न कर सके