दोश-ए-सबा पे क्या कोई पैग़ाम आ गया क्या माहताब आज सर-ए-शाम आ गया हर शाख़-ए-गुल लचकती है गुलशन की आज-कल हर फूल की ज़बाँ पे तिरा नाम आ गया खिलते रहे हैं फूल हर इक शाख़-ए-गुल के आज शायद चमन में आज वो गुलफ़ाम आ गया कैसी महक है आज हर इक सू बसी हुई क्या बाग़बाँ वो आज सर-ए-आम आ गया कैसे छुपाते अक्स जो आँखों में था तिरा सर को झुकाए रखना मिरे काम आ गया जिस से बसा हुआ है मिरा गुलशन-ए-हयात दो-गाम जी चला था कि नाकाम आ गया अटखेलियाँ है करती गुलिस्ताँ में क्यों सबा उस की इसी अदा पर ही इल्ज़ाम आ गया