दुआ में ज़िक्र क्यूँ हो मुद्दआ का कि ये शेवा नहीं अहल-ए-रज़ा का तलब मेरी बहुत कुछ है मगर क्या करम तेरा है इक दरिया अता का कहाँ तक नाज़ उठाए आख़िर ऐ हुस्न हवस तेरे मिज़ाज-ए-ख़ुद सता का नहीं मालूम क्या ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ तुझे कुछ हाल अपने मुब्तिला का बजा-ए-इस्म-ए-आज़म आप का नाम वज़ीफ़ा है मिरा सुब्ह ओ मसा का ग़ज़ब का सामना है आशिक़ों को दयार-ए-हक़ में अफ़वाज-ए-बला का निसार उन पर हुए अच्छे रहे हम तक़ाज़ा था यही ख़ू-ए-वफ़ा का गुनहगारो चलो अफ़्व-ए-इलाही बहुत मुश्ताक़ है अर्ज़-ए-ख़ता का तिरी महफ़िल में अहल-ए-दिल को जल्वा नज़र आ जाएगा शान-ए-ख़ुदा का उठाया है मज़ा दिल ने बहुत कुछ मोहब्बत के ग़म-ए-राहत-फ़ज़ा का जफ़ा को भी वफ़ा समझो कि 'हसरत' तुम्हें हक़ उन से क्या चून-ओ-चरा का