दुआएँ माँगने वालों का इंतिशार है क्या ये माह-ओ-साल का उड़ता हुआ ग़ुबार है क्या कोई सबब है कि यारब सुकून है इतना मुझे ख़बर ही नहीं है कि इंतिज़ार है क्या अगर हो दूर तो क़ाएम है दीद का रिश्ता अगर क़रीब हो मंज़र तो इख़्तियार है क्या यही कि आज परिंदों से शाम ख़ाली है यही कि मौसम-ए-जाँ का भी ए'तिबार है क्या बहुत दिनों से तबीअत बुझी बुझी सी है अगर है कुछ तो घड़ी-दो-घड़ी शुमार है क्या