डूब जाने के सिवा इश्क़ में चारा ही नहीं इस समुंदर का किसी सम्त किनारा ही नहीं तल्ख़ी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर जिस को गवारा ही नहीं उस को नावक निगह-ए-नाज़ ने मारा ही नहीं सुनते आते हैं कि इक रोज़ क़यामत होगी आप ने ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ को सँवारा ही नहीं पर्दा-ए-दिल से सदा यार की आ ही जाती हम तज़ब्ज़ुब में रहे उस को पुकारा ही नहीं बाज़ हम ऐसे तसव्वुर से कि अब तक जिस ने एक नक़्शा भी तिरा ठीक उतारा ही नहीं फिर शिकायत है मिरे दिल के तड़पने की अबस ताक कर तीर कोई आप ने मारा ही नहीं क्या है दरिया-ए-मोहब्बत के उधर क्या मा'लूम तेरी तलवार ने उस घाट उतारा ही नहीं उन की महफ़िल की अजब बात है क्या अर्ज़ करें तज़्किरा सब का है इक ज़िक्र हमारा ही नहीं मिल गई उस की नज़र मेरी नज़र से आख़िर अब तो देना ही पड़ा दिल कोई चारा ही नहीं और भी दीदा-ए-दिल रखते हैं पुर-ख़ूँ हम से कुछ तिरे हिज्र में ये रंग हमारा ही नहीं पारसाई में है फ़र्द उस की हया ऐ 'बेताब' शौक़-आलूद नज़र उस को गवारा ही नहीं