ग़म से ना-अहल-ए-वफ़ा हश्र तक आज़ाद न हो मर के सौ बार हो ज़िंदा तो कभी शाद न हो इस नशेमन में धरा क्या है कि बर्बाद न हो चार तिनके हों पड़े और कोई बुनियाद न हो क्या कहा था तिरी आँखों ने नज़र मिलते वक़्त फिर नज़र मुझ से मिला ले जो तुझे याद न हो कोई गाहक नहीं मुरझाए हुए फूलों का किसी सीने में इलाही दिल-ए-नाशाद न हो ख़ुश हो बुलबुल कि सज़ा-वार-ए-असीरी ठहरी वाए उस पर है कि जिस का कोई सय्याद न हो तेरी आँखों का जो मारा नहीं ज़िंदा ही नहीं है वही ऐन ग़लत जिस पे तिरा साद न हो सामने आ गई है मंज़िल-ए-पा लग़्ज़-ए-फ़िराक़ मदद ऐ इश्क़ कोई राह में उफ़्ताद न हो जो ग़ुबार उठता है कहता है ब-आवाज़-ए-बुलंद सर न इस ख़ाक का ऊँचा हो जो बर्बाद न हो दिल शिकस्ता न हो टूटेगा क़फ़स ख़ुद 'बेताब' वक़्त की बात है मुमकिन नहीं आज़ाद न हो