दूजे जहाँ में मुब्तला रहता हूँ हर घड़ी मुझ सा तिरे जहान में होगा नहीं कोई दो-चार लोग ही तो मिरे ग़म-गुसार हैं बाक़ी जहान सारा मुझे है ये अजनबी बो कर दो बीज लौटा नहीं कोई बाग़बाँ ता-उम्र दो दरख़्त को बंजर ज़मीं मिली आवाज़ कोई खींच के ले आई इस तरफ़ वर्ना तो जा चुकी थी बहुत दूर ज़िंदगी ख़ुश-हाल ज़िंदगी थी मैं ख़ुश-हाल था बहुत इक दम से एक दिन मिरी दुनिया बदल गई इक रात एक ख़्वाब में मैं डूबता रहा इक सुब्ह आई रू-ब-रू ता'बीर तैरती इतना भी ख़ुश न बाग़बाँ हो देख कर बहार ऐसी भी एक माँ है जो माँ भी नहीं बनी कुछ देर ख़ाकसार से मिल पाई अंदलीब कुछ देर बाद पेड़ गिरा और मर गई हर शय तो हो गई थी मुक़ाबिल मिरे मगर तस्वीर एक बारहा मेरी तरफ़ रही ठहरो किसी की आप क्या बिगड़ी बनाएँगे 'सोहिल' जनाब आप से अपनी कभी बनी