ग़ुरूर नाज़ अदा तमकनत-शिआरी सब मुझे तो याद है इक इक अदा तुम्हारी सब बस एक फाँस खटकती है आज भी दिल में अगरचे भर गए जितने थे ज़ख़्म-ए-कारी सब अब इस खंडर से नया इक मकान उभरेगा कि दफ़्न हो गई मलबा में आह-ओ-ज़ारी सब तमाशा ऐसा दिखा कर चला गया कोई कि हाथ मलते रहे देर तक मदारी सब हमारे हाथ से तकमील-ए-फ़न न हो जब तक वो काट सकता नहीं उँगलियाँ हमारी सब मैं जंग हार न जाता तो और क्या करता कि थी सिपाह मिरी हौसलों से आरी सब ये किस ने आ के फ़ज़ा में बिखेर दी ख़ुशबू कि भूल बैठे दिल-ओ-जाँ की बे-क़रारी सब 'ज़िया' ये दिल का तक़ाज़ा है ऐसे मौसम में मैं उस को पेश करूँ इज्ज़-ओ-इंकिसारी सब