दुनिया की कशाकश में फँस कर दिल-ए-ग़म से बचाना पड़ता है मुरझाई हुई कलियों को यहाँ हँस हँस के खिलाना पड़ता है यूँ अपनी तमन्ना मुज़्तर है यूँ अपनी मोहब्बत वीराँ है काँटे से बिछे हैं हर जानिब पलकों से उठाना पड़ता है क्या आलम है बेहोश में भी वा अहल-ए-नज़र की नज़रें हैं महफ़िल में किसी के दामन से दामन को बचाना पड़ता है जब चाँदनी शब में याद किसी ज़ालिम की नहीं जीने देती फिर राज़-ए-मोहब्बत घबरा कर तारों से बताना पड़ता है यूँ दर्द की टीसें उठती हैं यूँ सब्र का दामाँ छुटता है माज़ी का फ़साना फिर दिल से डर डर के भुलाना पड़ता है किस तंज़ से वो फ़रमाते हैं क्या सहल है उल्फ़त की मंज़िल याँ जान गँवानी पड़ती है याँ अश्क बहाना पड़ता है मंजधार में अपने हाथों से 'तसनीम' डुबो कर आह यहाँ नाकाम मोहब्बत कश्ती को फिर पार लगाना पड़ता है