दुश्मन ही जानती थी मिरी ज़िंदगी मुझे धोका क़दम क़दम पे जो देती गई मुझे ऐ चश्म-ए-फ़ित्ना-साज़ कहाँ ले गई मुझे अब नाम धर रहे हैं जहाँ में सभी मुझे ज़ौक़-ए-नज़र ने दीद की मोहलत न दी मुझे जलवों की तेरे वर्ना कमी कुछ न थी मुझे मैं तो तुम्हारी याद में मर जाऊँ या जिऊँ तुम को क़सम है याद न करना कभी मुझे अंदाज़ दिलबरी के अगर हुस्न को मिले हुस्न-आश्ना निगाह-ए-मोहब्बत मिली मुझे अल्लह रे मेरे अश्क-ए-नदामत की बेकसी वज्ह-ए-नुज़ूल रहमत-ए-हक़ बन गई मुझे ‘ज़ाहिर’ मिला है तूर का सुर्मा अवाम को ख़ाक-ए-दर-ए-हबीब मयस्सर हुई मुझे