ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी गो तुज को लक़ब हम ने दिया अर्श-मकानी यक ख़ल्क़ की नज़रों में सुबुक हो गया लेकिन करता हूँ मैं अब तक तिरी ख़ातिर पे गिरानी टुक दीदा-ए-तहक़ीक़ से तू देख ज़ुलेख़ा हर चाह में आता है नज़र यूसुफ़-ए-सानी मामूर है जिस रोज़ से वीराना-ए-दुनिया हर जिंस के इंसाँ की ये माटी गई छानी इक वामिक़-ए-नौ का है समझ चाक गरेबाँ करती है जो रख़्ना कोई दीवार पुरानी बुलबुल ही सिसकती न थी कुछ बाग़ में तुझ बिन शबनम गुलों के मुँह में चुवाती रही पानी है गोश-ज़दा ख़ल्क़ मिरा क़िस्सा-ए-जाँ-काह जब से कि न समझे था तू चिड़िया की कहानी जूँ शम्अ मुझे शर्म है ज़ुन्नार की ऐ शैख़ माला न जपूँ रात को बे-अश्क-फ़िशानी जिस सम्त नज़र मौज-ए-सराब आवे तो ये जान होवेगी किसी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की निशानी क्या क्या मिले लैला-मनशाँ ख़ाक में 'सौदा' गो अपने भी महबूब की देखी न जवानी