तीरगी ही तीरगी है बाम-ओ-दर में कौन है कुछ दिखाई दे तो बतलाएँ नज़र में कौन है क्यूँ जलाता है मुझे वो आतिश-ए-एहसास से मैं कहाँ हूँ ये मिरे दीवार-ओ-दर में कौन है ज़ात के पर्दे से बाहर आ के भी तन्हा रहूँ मैं अगर हूँ अजनबी तो मेरे घर में कौन है चाक क्यूँ होते हैं पैराहन गुलों के कुछ कहो झुक के लहराता हुआ शाख़-ए-समर में कौन है जैसे कोई पा गया हो अपनी मंज़िल का सुराग़ धूप में बैठा हुआ राह-ए-सफ़र में कौन है काँपता जा देख कर इज़हार की तज्सीम को सोचता जा आरज़ू-ए-शीशा-गर में कौन है बस ज़रा बिफरी हुई मौजों की ख़ू माइल रही अहल-ए-साहिल जानते तो थे भँवर में कौन है शोर करता फिर रहा हूँ ख़ुश्क पत्तों की तरह कोई तो पूछे कि शहर-ए-बे-ख़बर में कौन है मैं तो दीवाना हूँ इक संग-ए-मलामत ही सही लेकिन इतना सोच लो शीशे के घर में कौन है