ऐ दिल अब इश्क़ की लै-गोई और चौगान में आ बे-ख़तर ठोक के ख़म जंग के सामान में आ ख़ौफ़ ग़म्माज़ रक़ीबों का न कर कुछ हरगिज़ हो के राज़ी ब-रज़ा वक़्त है मैदान में आ फ़ुर्सत इस वक़्त ग़नीमत है निकल ज़ुल्मत से सुल्झ कर ज़ुल्फ़ से रूख़्सार-ए-दरख़्शान में आ गुल-ए-रूख़्सारा का नज़्ज़ारा तू कर आँखें खोल अंग्बीं चखने को फिर दिल लब-ए-ख़ंदान में आ बा'द उस के जो अगर समझे मुनासिब ऐ दिल क़ैद होने के तईं चाह-ए-ज़नख़दान में आ हर्ज़ा फिरने से तिरे गोशा-नशीनी बेहतर वहम-ओ-शक और गुमाँ छोड़ के ईक़ान में आ वस्ल-ओ-हिजरत के तईं एक समझ 'अफ़रीदी' अक़्ल है कुछ भी अगर सोहबत-ए-रिंदान में आ