इक अजनबी को दिल ने यगाना बना लिया भूली हुई थी बात फ़साना बना लिया क्या इंतिहा-ए-शौक़ थी दीदार के लिए हर रहगुज़र को अपना ठिकाना बना लिया क़ौल-ओ-क़रार-ओ-रस्म-ए-वफ़ा कुछ न कर सके हर बार उस ने कोई बहाना बना लिया ऐ शम्अ तेरे हुस्न-ए-तजल्ली का है कमाल मुश्ताक़-ए-दीद को भी दिवाना बना लिया यक-बारगी जो सामना उन से कहीं हुआ था हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ बहाना बना लिया दस्तूर इस जहाँ का निराला है दोस्तो देखा ग़रीब को तो निशाना बना लिया 'सादिक़' भी दास्तान-ए-वफ़ा क्या बयाँ करें करके बहम इशारे फ़साना बना लिया