इक बार मिल के फिर न कभी उम्र भर मिले दो अजनबी थे हम जो सर-ए-रह-गुज़र मिले कुछ मंज़िलों के ख़्वाब थे कुछ रास्तों के धूल निकले सफ़र पे हम तो यही हम-सफ़र मिले यूँ अपनी सरसरी सी मुलाक़ात ख़ुद से थी जैसे किसी से कोई सर-ए-रह-गुज़र मिले इक शख़्स खो गया है जो रस्ते की भीड़ में इस का पता चले तो कुछ अपनी ख़बर मिले अपने सफ़र में यूँ तो अकेला हूँ मैं मगर साया सा एक राह के हर मोड़ पर मिले बरसों में घर हम आए तो बेगाना-वार आज हम से ख़ुद अपने घर के ही दीवार-ओ-दर मिले 'मख़मूर' हम भी रक़्स करें मौज-ए-गुल के साथ खुल कर जो हम से मौसम-ए-दीवाना-गर मिले