कभी मिली जो तिरे दर्द की नवा मुझ को ख़मोशियों ने मुझी से किया जुदा मुझ को बदन के सूने खंडर में कभी जला मुझ को मैं तेरी रूह की ज़ौ हूँ न यूँ बुझा मुझ को मैं अपनी ज़ात की हम-साएगी से डरता हूँ मिरे क़रीब ख़ुदा के लिए न ला मुझ को मैं चुप हूँ अपनी शिकस्त-ए-सदा की वहशत पर मुझे न बोलना पड़ जाए मत बुला मुझ को ये मैं था या मिरे अंदर का ख़ौफ़ था जिस ने तमाम उम्र दी तन्हाई की सज़ा मुझ को भटक रहा हूँ मैं बे-सम्त रास्तों की तरह किसी भी सम्त का हो रास्ता दिखा मुझ को हर इक ने देखा मुझे अपनी अपनी नज़रों से कोई तो मेरी नज़र से भी देखता मुझ को समो के आँखों में उमडी घटाएँ ऐ 'आज़ाद' वो एक दर्द का सहरा बना गया मुझ को